आधुनिककालीन हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास/भारतेंदु और द्विवेदीयुगीन काव्य-प्रवृत्तियाँ

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हिंदी साहित्य में आधुनिकता का आगमन नवजागरण का परिणाम था। कोरी भावुकता का निषेध कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण में विश्वास, ईश्वर की जगह मानव को तथा आस्था की जगह तर्क को केंद्रीय स्थान मिला। ऐसा नहीं है कि यह सब कुछ अचानक हुआ बल्कि एक प्रक्रिया के तहत हुआ। इस प्रक्रिया को तेज़ करने तथा आगे बढ़ाने में भारतेंदु तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। यही कारण है कि हिंदी साहित्य के आधुनिक काल और हिंदी नवजागरण का अध्ययन भारतेंदु और द्विवेदीयुगीन साहित्यिक-प्रवृत्तियों के अध्ययन के बिना अधूरी है। इस कड़ी में सबसे पहले हम भारतेंदु युगीन साहित्यिक-प्रवृत्तियों पर विचार करेंगे।

भारतेंदु युगीन काव्य-प्रवृत्तियाँ[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

किसी भी युग अथवा साहित्यकार की साहित्यिक प्रवृत्तियों को परखने के लिए उनकी भावगत और शिल्पगत विशेषताओं का अध्ययन आवश्यक होता है। भारतेंदु युगीन काव्य भाव और शिल्प के स्तर पर विविधताओं, प्रयोगों और अंतर्विरोधों से भरपूर है। सामान्यतः संक्रमण-कालीन साहित्य इन विशेषताओं से युक्त होता ही है। भारतेंदु युग भी मध्यकालीनता से आधुनिकता में संक्रमण का दौर माना जा सकता है। सबसे पहले हम भारतेंदु युगीन काव्य की भावगत विशेषताओं का विवेचन करेंगे।

भावगत विशेषताएँ[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

भारतेंदु युगीन काव्य अंतर्विरोधी मूल्यों से युक्त है। काव्य में यह अंतर्विरोध सामाजिक संरचना के भीतर से पैदा होता है। यह एक ऐसा दौर था जब अंग्रेज़ी और भारतीय संस्कृति में टकराहट हो रही थी जिसने तनाव की स्थिति उत्पन्न की। यह तनाव समाज में व्याप्त अंतर्विरोधों को रचनात्मक ऊर्जा में परिणत कर काव्य में कई स्तरों पर व्यक्त होता है। उदाहरण के तौर पर यह अंतर्विरोध राजभक्ति बनाम राष्ट्रभक्ति, भक्ति-शृंगार बनाम जनमानस की समस्याएँ, ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली इत्यादि में देखा जा सकता है।

राजभक्ति और राष्ट्रभक्ति का द्वंद्व[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

भारतेंदु युग के आरंभिक कवियों में ब्रिटिश राज के प्रति राजभक्ति का भाव विद्यमान था। इसका एक कारण यह भी माना जाता है कि प्रारंभ में वे साम्राज्यवादी सरकार के स्वार्थ को स्पष्ट रूप से समझ नहीं सके। हालाँकि सरकार ने कुछ सुधार किये तो थे लेकिन ऐसा करने के पीछे उनकी सदिच्छा न थी। इस आरंभिक दौर में ब्रिटिश सरकार का वास्तविक रूप स्पष्ट न हो सका। इसीलिए इस युग में जहाँ महारानी विक्टोरिया की प्रशंसा के भाव मिलते हैं वहीं राष्ट्रभक्ति भी दिखती है। भारतेंदु के यहाँ राजभक्ति का भाव द्रष्टव्य है —

"पूरी अमी की कटोरिया सी चिरजीओ सदा विकटोरिया रानी।
सूरज चंद प्रकास करै जब लौं रहै सात हू सिंधु मैं पानी॥" (भारतेंदु हरिश्चंद्र)

हालाँकि विक्टोरिया की प्रशंसा के साथ भारतेंदु में अपने देश के श्रीहीन होते जाने की चिंता भी थी –

"अंगरेज राज सुख साज सजै सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी॥" (भारतेंदु हरिश्चंद्र)

समस्याओं पर आधुनिक चिंतन करने वाले कवियों के पास तत्कालीन तनावपूर्ण स्थितियों से उबरने का कोई साधन नहीं है। यही कारण है कि वे भारत की दुर्दशा पर आँसू बहाने को विवश हैं –

"रोवहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई।
हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई॥" (भारतेंदु हरिश्चंद्र)

शृंगारिकता की चेतना[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

इस काल में आधुनिकता की चेतना के बावजूद रीतिकालीन प्रभाव पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सका। भारतेंदु युग की कविता कहीं-कहीं विशुद्ध शृंगार के दर्शन होते हैं –

"पिय प्रयारे तिहारे निहारे बिना,
अँखियाँ दुखियाँ नहिं मानती हैं।" (भारतेंदु हरिश्चंद्र)

कहीं-कहीं इस शृंगार में भक्ति का भाव भी मिश्रित हो गया है –

"जय जय हरि राधा रस केलि।
तरनि तनूजा तट इकन्त पै बाहु-बाहु पै मेलि॥" (भारतेंदु हरिश्चंद्र)

भक्ति-भावना[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

भारतेंदु युग में निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में भक्ति-भाव के दर्शन होते हैं। इसी समय भक्ति का एक और व्यापक रूप "स्वदेशानुराग समन्वित भक्ति" भी उपलब्ध होता है। ईश्वर की भक्ति का उद्देश्य अब देश की समस्याओं को सुलझाना हो गया –

"हम आरत भारत भारत वासिन पै
अब दीन दयाल कृपा करिए।" (प्रतापनारायण मिश्र)

"प्रभु हो पुनि भूतल अवतरिये।
अपने या प्यारे भारत के पुनि दुख दरिद्र हरिये।" (राधाकृष्ण दास)

समस्यापूर्ति[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

इस युग में 'कविता वर्द्धिनी सभा' तथा 'रसिक समाज' जैसी संस्थाओं की स्थापना की गई। इन सभाओं में कवियों की गोष्ठियाँ होती थीं तथा नये कवियों को प्रोत्साहन दिया जाता था। इस परंपरा में एक विषय तय किया जाता था और उसकी अंतिम पंक्ति तय की जाती थी। विभिन्न कवि अपनी प्रतिभा से उससे पहले की पंक्तियों की रचना करते थे। इसे ही समस्यापूर्ति कहा गया। प्रतापनारायण मिश्र द्वारा 'रसिक समाज' में की गई एक समस्यापूर्ति "पपीहा जब पूछिहैं पीव कहाँ" द्रष्टव्य है –

बनि बैठी हैं मान की मूरति सी, मुख खोलत बोलै न 'नाहीं' न 'हाँ'।
तुमही मनुहारि कै हारि परै, सखियनि की कौन चलाई तहाँ॥
बरषा है 'प्रतापजू' धीर धरौ, अबलौं मन को समझायो जहाँ।
यह ब्यारि तवै बदलेगी कछू पपिहा जब पूछिहै "पीव कहाँ?"

सामाजिक समस्याओं का चित्रण[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

इस युग का काव्य जन जीवन से जुड़ा है अतः इसमें नारी शिक्षा, विधवा समस्या, बाल-विवाह, धार्मिक संकीर्णता जैसे विषयों की ओर कवियों की दृष्टि गई। इन कवियों ने समाज में फैली विकृतियों पर चोट करके समाज में नई चेतना पैदा की। बाल-विधवाओं पर स्थिति पर एक कविता के सरोकार द्रष्टव्य हैं –

"कौन करेजो नहिं कसकत सुनि बिपति बाल विधवन की।" (प्रताप नारायण मिश्र)

शिल्पगत विशेषताएँ[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

भारतेंदु युगीन काव्य भावगत के साथ शिल्पगत दृष्टि से भी अंतर्विरोध और विविधताओं से परिपूर्ण है। काव्यभाषा के संदर्भ में ब्रज और खड़ी बोली का द्वंद्व विद्यमान था। भारतेंदु ने खड़ी बोली में कुछ कविताएँ रचने के बाद भी उसे काव्यभाषा के तौर पर महत्व नहीं दिया। उनका मानना था कि – "मैंने कई बार परिश्रम किया कि खड़ी बोली में कुछ कविता बनाऊँ पर मेरे चित्तानुसार नहीं बनी, इससे यह निश्चय होता है कि ब्रजभाषा में ही कविता करना उत्तम होता है।" भारतेंदु युगीन काव्य की शिल्पगत विशेषताओं को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है।

भाषा[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

इस युग में कुछ कविताएँ खड़ी बोली में भी रचीं गईं किंतु अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा में ही हैं। ब्रजभाषा में कोमलकांत पदावली होने के कारण उसका मोह छोड़ा न जा सका। हालाँकि गद्य साहित्य में खड़ी बोली का सफल प्रयोग हुआ किंतु काव्य के क्षेत्र में अधिक सफलता न मिली। 'निज भाषा' के संबंध में भारतेंदु सर्वाधिक संवेदनशील रचनाकार हैं। उनका स्पष्ट मानना था कि भारत को स्वत्व गहने कि लिए निज भाषा ज्ञान अनिवार्य है –

"अंगेज़ी पढ़ि के यद्यपि, सब गुण होत प्रवीन।
पै निज भाषा ज्ञान बिन रहत हीन के हीन॥"

काव्य-रूप[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

इस युग में मुख्यतः मुक्तक-काव्य रचे गए। कुछ प्रबंधात्मक काव्य भी मिलते हैं, जैसे – प्रेमघन रचित 'जीर्ण जनपद'। प्रगीत मुक्तक, लोकगीत तथा मुकरियाँ भी इस युग की काव्यात्मक उपलब्धियाँ हैं। भारतेंदु के प्रयासों से मुकरियाँ तो अमीर खुसरो के बाद इसी युग में पुनर्प्रचलित हुईं –

"सब गुरुजन को बुरा बतावै, अपनी खिचड़ी आप पकावै।
भीतर तत्व न झूठी तेजी, क्यों सखि साजन! नहिं अंग्रेजी!!" (भारतेंदु)

छंद[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

भारतेंदु युग की कविता में दोहा, सोरठा, चौपाई, कवित्त, हरिगीतिका आदि परंपरागत छंदों के अतिरिक्त लावनी, कजरी व फगुआ (होली) आदि लोकगीतों के लय-धुन भी विद्यमान हैं। लोकजीवन छंदों के माध्यम से कविता में उतर आया है। प्रतापनारायण मिश्र द्वारा रचित एक लावनी द्रष्टव्य है –

दीदारी दुनियादारी सब नाहक का उलझेडा़ है।
सिवा इश्क के, जहां जो कुछ है निरा बखेड़ा है॥

अलंकार[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

भारतेंदु युगीन कविता जन-सामान्य की समस्याओं से सीधे जुड़ती है इसलिए अलंकारों की सजावट पर अधिक ध्यान नहीं देती। भाषा की जगह भाव पर अधिक ध्यान देने के कारण अर्थालंकार का प्रयोग अधिक हुआ है। हालाँकि शब्दालंकारों का जहाँ भी प्रयोग हुआ है, वह सफल है। श्रीचंद्रावली से शब्दालंकार का एक उदाहरण द्रष्टव्य है –

"तरनि-तनूजा-तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सों जल-परसन-हित मनहुँ सुहाए॥"

द्विवेदीयुगीन काव्य-प्रवृत्तियाँ[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

द्विवेदी युग में काव्य की दो धाराएँ प्रवाहित हुईं – स्वच्छंदतावादी और अनुशासनबद्ध। स्वच्छंदतावादी धारा में श्रीधर पाठक, मुकुटधर पांडेय तथा रामनरेश त्रिपाठी आदि कवि रखे जा सकते हैं। अनुशासनबद्ध धारा के प्रणेता स्वयं महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। उनके अतिरिक्त अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', मैथिलीशरण गुप्त तथा नाथूराम शर्मा शंकर आदि रचनाकार महत्त्वपूर्ण हैं। स्वच्छंदतावादी कवियों ने स्वतंत्रता की घोषणा की तथा प्रकृति को एक स्वतंत्र विषय बना दिया। प्रकृति उनके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि प्रकृति से दूरी साहित्य से दूरी है। इनके काव्य में स्वच्छंदता और स्वतंत्रता का स्वर प्रबल होने के कारण आत्मनिष्ठता एवं वैयक्तिकता की प्रधानता है। इन कवियों ने पहली बार जगत की सच्चाई पर अपनी लेखनी चलाई। श्रीधर पाठक का मानना था कि – "जगत है सच्चा, तनिक न कच्चा, समझो बच्चा इसका भेद।" इसके साथ ही स्वच्छंदता के संबंध में वे अपने समकालीनों से आह्वान करते भी दिखाई देते हैं – "लिखो, न लेखनी करो बंद, श्रीधर सम सब कवि स्वच्छंद।" स्वच्छंदता (romance) का संदर्भ आते ही प्रेम स्वतः ही चर्चा का विषय बन जाता है। इसका मूल कारण तो यही है कि प्रेम मानवीय संस्कृति का वह पहलू है जहाँ कोई बंधन नहीं ठहरता —

"प्रेम स्वर्ग है, स्वर्ग प्रेम है, प्रेम अशंक अशोक।
ईश्वर का प्रतिबिंब प्रेम है, प्रेम सदय आलोक॥" (रामनरेश त्रिपाठी)

द्विवेदी युग की दूसरी धारा अनुशासनबद्ध है। स्वच्छंदतावाद में परंपराओं को तोड़ने का प्रयास है, जबकि अनुशासनबद्ध धारा में नये प्रतिमान बनाने की बात है। वस्तुतः अनुशासनबद्ध धारा ही द्विवेदीयुगीन काव्य की मूल धारा मानी गई। द्विवेदीयुग की काव्य-प्रवृत्तियों के भाव और शिल्प को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझने का प्रयास किया जा सकता है।

भावगत विशेषताएँ[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

भारतेंदु युग की मूल चिंता राजनीतिक थी तो द्विवेदीयुग की मूल चिंता सांस्कृतिक हो गई। यहाँ गंभीर आत्ममंथन हुआ और तत्कालीन समस्याओं पर आधुनिक चिंतन करने का प्रयास किया गया है। भाषा के अनुशासन के साथ काव्य के भाव या वस्तु पक्ष को भी अनुशासनबद्ध किया गया। इस कड़ी में सबसे पहले नये प्रतिमानों की स्थापना पर ज़ोर दिया गया और साहित्य की सोद्देश्यता को महत्त्वपूर्ण माना गया।

समाज के लिए नए प्रतिमानों की स्थापना[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

द्विवेदीयुग को रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण का तीसरा पड़ाव माना है। हिंदी नवजागरण विवेकशील चिंतन का युग है। अपनी संस्कृति के पुनर्मूल्यांकन की कोशिश की गई। यहाँ नये के प्रति तर्कहीन जोश और पूर्वग्रह नहीं है बल्कि विवेक से तय किया जाता है कि आधुनिक समय में क्या प्रासंगिक है। यही कारण है कि यह युग समयानुसार संस्कृति में बदलाव को स्वीकार करता है –

"प्राचीन हों कि नवीन छाड़ो रूढ़ियाँ जो हों बुरी,
बन कर विवेकी तुम दिखाओ हंस-जैसी चातुरी।
'प्राचीन बातें ही भली हैं'—यह विचार अलीक है,
जैसी अवस्था हो जहाँ वैसी व्यवस्था ठीक है॥" (मैथिलीशरण गुप्त)

साहित्य की सोद्देश्यता पर बल[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

इस युग में पहली बार साहित्य की सोद्देश्यता पर बल दिया गया। कविता के स्तर पर पहली बार यह तय हुआ कि कविता का उद्देश्य केवल मनोरंजन करना नहीं है —

"केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए॥" (मैथिलीशरण गुप्त)

राष्ट्रीयता की नवीन धारणा[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

भारतेंदु युग की राष्ट्रीयता का स्वरूप तय नहीं था और राजभक्ति के साथ राष्ट्रभक्ति का द्वंद्व विद्यमान था। द्विवेदी युग में राष्ट्रीयता का स्वरूप तय हो गया। सांप्रदायिकता को त्यागकर देशवासियों से एक होने तथा आवश्यकता पड़ने पर देश के लिए प्राण न्यौछावर करने का भी आह्वान किया गया —

"आओ, मिलें सब देश-बान्धव हार बन कर देश के,
साधक बनें सब प्रेम से सुख-शान्तिमय उद्देश के।
क्या साम्प्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता अहो!
बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की कहो?" (मैथिलीशरण गुप्त)

"देश भक्त वीरों मरने से नेक नहीं डरना होगा।
प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा॥" (नाथूराम शर्मा शंकर)

विषयों की विविधता[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

द्विवेदी युग में विषयों का अत्यधिक विस्तार हुआ। 'कवि कर्तव्य' में स्वयं द्विवेदी जी का मत था कि — "चींटी से लेकर हाथा पर्य्यन्त पशु; भिक्षुक से लेकर राजा पर्य्यन्त मनुष्य; बिन्दु से लेकर समुद्र पर्य्यन्त जल; अनन्त आकाश; अनन्त पृथ्वी; अनन्त पर्वत—सभी पर कविता हो सकती है; सभी से उपदेश मिल सकता है और सभी के वर्णन से मनोरञ्जन हो सकता है।" यही कारण है कि यह काव्य किसान, राजा, मज़दूर, साधु, प्रकृति आदि विविध विषयों को समेटता है। प्रकृति तो पहली बार स्वतंत्र विषय बनकर आई। 'प्रिय प्रवास' खड़ी बोली का पहला महाकाव्य जिसका आरंभ ही प्रकृति-चित्रण से होता है —

"दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु शिखा पर थी अब राजती, कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा॥" (अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध')

आधुनिकताबोध[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

नवजागरण काल में पहली बार ईश्वर की जगह मानव को चिंतन के केंद्र में रखा गया। अकारण नहीं कि द्विवेदी युग में ईश्वर को भी मानव रूप में प्रतिष्ठित किया गया। 'प्रिय प्रवास' में कृष्ण न तो ब्रह्म हैं और न ही राधा वियोगिनी। यहाँ कृष्ण एक महापुरुष हैं और राधा समाज सेवा का व्रत धारण करती हैं। ये कवि अपनी संस्कृति का गहन मंथन कर और अपनी ग़लतियाँ ढूँढकर उनका परिष्कार करने का प्रयास करते हैं ताकि उन्हें दुहराने से बचा जा सके —

"हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी।
आओ मिलकर आज विचारें ये समस्याएँ सभी॥" (मैथिलीशरण गुप्त)

ये कवि चूँकि आधुनिक हैं इसलिए परलोक की जगह इहलोक की चिंता करते हैं —

"संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया।
मैं भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया॥" (मैथिलीशरण गुप्त)

ये वस्तुनिष्ठ प्रतिमानों की स्थापना करते हैं और सार्वभौमिक नियमों को स्वीकार करते हैं। आधुनिकबोध की वस्तुनिष्ठता वहाँ स्पष्ट दिखती है जब कहा जाता है कि, "न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है" (जयद्रथ वध, मैथिलीशरण गुप्त)। द्विवेदीयुगीन कवि नवजागरण से प्रेरित हैं इसलिए नारी की स्थिति के प्रति सरोकार और करुणा का भाव रखते हैं —

"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी॥" (मैथिलीशरण गुप्त)

ये कवि नारी के प्रति सम्मान का भाव रखने के साथ समाज में उनकी दुर्दशा पर चिंतित भी हैं —

"नर जाति की जननी तथा सुख शांति की स्रोतस्वति।
हा दैव! नारी जाति की कैसी यहाँ है दुर्गति॥" (मैथिलीशरण गुप्त)

इतिहास ने जिन नारी पात्रों के त्याग को उपेक्षित कर दिया था, द्विवेदी युग के कवियों ने उन्हें अपने काव्यों में नायिका को स्थान देकर अंधेरे से बाहर निकाला। गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा से कवि कहलवाता है —

"सिद्धि-हेतु स्वामी गये, यह गौरव की बात,
पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?" (मैथिलीशरण गुप्त)

शिल्पगत विशेषताएँ[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

द्विवेदीयुगीन काव्य मूलतः विषयवस्तु के गंभीर निरूपण का आंदोलन था। अनुशासनबद्धता में साहित्य रचना के लिए जो मानदंड निर्धारित हुए उसके अनुसार कलात्मकता तथा चमत्कार को अधिक महत्व नहीं दिया गया। विषयों को वर्णनप्रधान तथा अभिधात्मक शैली में कविता में ढाला गया। महावीर प्रसाद द्विवेदी के अनुसार कविता शिल्प की चमक-दमक से लदी हुई न होकर आमजन के लिए बोधगम्य होनी चाहिए। उनका स्पष्ट मानना था कि महान कविताएँ अभिधा में ही लिखी जाती हैं क्योंकि अभिधात्मक कविताएँ संपूर्ण समाज तक पहुँचती हैं। वे रीतिवादी तथा कलावादी मानसिकता के विरोधी थे, इसलिए भी उन्होंने अभिधा का पक्ष लिया। अभिधात्मक होने के कारण द्विवेदीयुगीन काव्य पर इतिवृत्तात्मकता का आरोप भी लगाया जाता है।

इतिवृत्तात्मकता[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

इतिवृत्तात्मक काव्य में वर्णन की प्रधानता होती है। अभिधात्मकता या बातों को सीधे-सीधे कह देने पर अधिक बल दिया जाता है। सामान्यतः काव्य-सौंदर्य को पुष्ट करने पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। इसीलिए ऐसी रचनाओं पर उथलेपन का आरोप भी लगता है। हालाँकि इन कविताओं का सांस्कृतिक महत्व है। भारतेंदुयुग में जिस चिंतन का आरंभ हुआ उसे द्विवेदीयुग में तार्किकता व गंभीरता मिली।

काव्यरूप[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

इस युग में प्रायः प्रबंध-काव्य लिखे गए। तुलनात्मक रूप से मुक्तकों की रचना कम हुई। 'रंग में भंग', 'जयद्रथ-वध', 'प्लासी का युद्ध', 'गुरुकुल', 'किसान', 'पंचवटी', 'साकेत', 'यशोधरा', 'प्रिय प्रवास' आदि प्रबंधात्मक काव्यों की रचना हुई।

भाषा[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

इस युग तक भाषाई द्वैत समाप्त हो गया। द्विवेदी युग में गद्य व गद्य दोनों की भाषा खड़ी बोली हो गई। पंडित गौरी दत्त, बाबू श्याम सुंदर दास, अयोध्या प्रसाद खत्री इस आंदोलन में प्रमुख रहे। 'प्रिय-प्रवास' खड़ी बोली का पहला महाकाव्य है। अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने 'प्रिय-प्रवास' की भूमिका में लिखा है — "अब मुझे केवल इतना ही कहना है कि समय का प्रवाह खड़ी बोली के अनुकूल है, इस समय खड़ी बोली में कविता करने से अधिक उपकार की आशा है। अतएव मैंने भी 'प्रियप्रवास' को खड़ी बोली में ही लिखा है। संभव है कि उसमें अपेक्षित कोमलता और कान्तता न हो, परन्तु उससे यह सिद्धान्त नहीं हो सकता कि खड़ी बोली में सुन्दर कविता हो ही नहीं सकती। वास्तव बात यह है कि यदि उसमें कान्तता और मधुरता नहीं आई है तो यह मेरी विद्या, बुद्धि और प्रतिभा का दोष है, खड़ी बोली का नहीं।"

छंद[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

यहाँ मध्यकालीन छंदों के स्थान पर संस्कृत के वार्णिक छंदों का प्रयोग हुआ। यहाँ दोहे भी लिखे गए। मैथिलीशरण गुप्त का प्रिय छंद हरिगीतिका है। तुकांतता पर बल दिया गया है।

वीडियो व्याख्यान[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]