भारतीय काव्यशास्त्र

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जिस प्रकार प्रत्येक भाषा का अपना व्याकरण होता है वैसे ही प्रत्येक साहित्य का भी अपना व्याकरण होता है। साहित्य के इसी व्याकरण के लिए 'साहित्यशास्त्र' पद का व्यवहार किया जाता है। साहित्यशास्त्र के लिए 'काव्यशास्त्र' और 'अलंकारशास्त्र' जैसे पदों का व्यवहार भी किया जाता रहा है। 'अलंकार' और 'काव्य' तब व्यापक अर्थ रखते थे। अलंकार से साहित्य के समस्त सौंदर्य का बोध होता था और काव्य पद्य सहित सम्पूर्ण साहित्य का बोधक होता था। अब अलंकार काव्य के सौंदर्य का प्रकार भर है और काव्य भी साहित्य की एक विधा मात्र है। जैसे भाषा के शुद्ध प्रयोग के लिए व्याकरण की आवश्यकता होती है वैसे ही साहित्य के बारे में सम्यक बोध के लिए काव्यशास्त्र (साहित्यशास्त्र)आवश्यक है।

आधार[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

भारतीय काव्यशास्त्र का आधार संस्कृत भाषा है। 'संस्कृत काव्यशास्त्र' का आरंभ भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' से माना जाता है। हालांकि राजशेखर प्रवर्तित कथा के अनुसार यह परंपरा भरतमुनि से भी प्राचीन है। चूंकि राजशेखर जनश्रुतियों का हवाला देते हैं इसलिए प्रामाणिक तौर पर संस्कृत काव्यशास्त्र का आरंभ भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' से मानना ही तर्कसंगत है। भरत 'रस-सिद्धांत' के प्रवर्तक थे। उनके सिद्धांत की व्याख्या विभिन्न टीकाओं के माध्यम से हुई। मातृगुप्त, उद्भट, भट्ट लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक, हर्ष, कीर्तिधर और अभिनवगुप्त आदि ने रस-निष्पत्ति की विविध व्याख्याएं की। भरतमुनि के पश्चात विभिन्न मत प्रवर्तक आचार्यों और उनके संप्रदायों का उल्लेख मिलता है। आचार्य भामह 'अलंकार संप्रदाय' के सिद्धांत के प्रवर्तक आचार्य हैं, उनकी कृति का नाम है - 'काव्यालंकार'। आचार्य दंडी ने 'रीति संप्रदाय' का प्रवर्तन किया जिसका स्रोत है - 'काव्यादर्श'। 'ध्वनि सिद्धांत' के प्रवर्तक आचार्य हैं आनंदवर्धन, जिन्होंने 'ध्वन्यालोक' में अपने सिद्धांत की व्याख्या की। 'वक्रोक्ति-संप्रदाय' की प्रतिष्ठापना कुंतक ने 'वक्रोक्ति काव्य जीवितं' में की। क्षेमेंद्र ने 'औचित्य विचार चर्चा' में 'औचित्य संप्रदाय' की स्थापना और उसकी व्याख्या की। इन संप्रदायों पर विचार करने के पूर्व काव्यशास्त्र के कुछ महत्वपूर्ण अवयवों, 'काव्य-लक्षण', 'काव्य हेतु' और 'काव्य प्रयोजन', की चर्चा करना आवश्यक है। (विकिपीडिया पर पढ़ें काव्यशास्त्र)

काव्य-लक्षण[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

'काव्य' की विवेचना के क्रम में सबसे पहले हमारी दृष्टि जाती है काव्य के लक्षणों पर। 'काव्य के लक्षण' को निर्धारित करने के प्रयास विभिन्न कालों में हुए। सबसे पहले यह समझने का प्रयास किया जाना चाहिए कि 'काव्य-लक्षण' में 'लक्षण' पद का अर्थ क्या है? परिभाषा के तौर पर कहा जा सकता है कि लक्षण लक्ष्यभूत पदार्थ या विषय की कोई ऐसी विशेषता है जिसमें अव्याप्ति या अतिव्याप्ति दोष न हो, साथ ही जो नामोल्लेख इत्यादि व्यवहार-साधक उपायों से अलग हो। इन्हीं बिंदुओं पर विचार करते हुए विभिन्न आचार्यों ने अपने-अपने काव्य लक्षण निर्धारित किए हैं। (विकिपीडिया पर पढ़े काव्य-लक्षण)

काव्य-हेतु[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

'काव्य-हेतु' किसी कवि की वह शक्ति है, जिससे वह काव्य का सृजन करता है। 'प्रतिभा', 'व्युत्पत्ति' और 'अभ्यास' को सभी आचार्यों ने किसी न किसी रूप में काव्य-हेतु माना है। (विकिपीडिया पर पढ़ें काव्य हेतु)

काव्य-प्रयोजन[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

'काव्य-प्रयोजन' का अर्थ है, काव्य-रचना से प्राप्त फल, उदाहरण के लिए - यश, धन, आनंद आदि। यहाँ 'काव्य-हेतु' और 'काव्य-प्रयोजन' का अंतर समझना आवश्यक है। जहाँ काव्य प्रयोजन का अर्थ काव्य से प्राप्त फल से जुड़ता है, वहीं काव्य हेतु वह शक्ति है, जिससे कवि काव्य की रचना कर पाता है। (विकिपीडिया पर पढ़ें काव्य प्रयोजन)

भारतीय काव्यशास्त्र प्रश्नोत्तर[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

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