हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास (रीतिकाल तक)/भारोपीय भाषा परिवार और आर्यभाषाएँ

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भाषाविद संसार की समस्त भाषाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए उन्हें कुलों, उपकुलों, शाखाओं, उपशाखाओं तथा समुदायों के अंतर्गत वर्गीकृत करते हैं। किसी भी भाषा का संसार में स्थान कहाँ है, इसे समझने के लिए उसके कुल-उपकुल का अध्ययन आवश्यक है। उन सभी भाषाओं की गणना एक कुल में की जाती है, जिनके बारे में यह सिद्ध हो चुका है कि वे सभी किसी एक मूल भाषा से ही उत्पन्न और विकसित हुई हैं।[1] अभी तक संसार के सभी भाषा-परिवारों का निश्चित अनुमान नहीं किया जा सका है। विभिन्न भाषाविदों द्वारा भिन्न-भिन्न भाषा-परिवारों का अनुमान किया गया है। रेई (Reiss) ने एक, पार्टिरिज ने दस, बिल्हेल्म फॉन हम्बोल्ड्ट ने तेरह, ग्रे ने छब्बीस, फ्रेडरिक मूलर ने सौ से अधिक भाषा-परिवार माना है।[2] शोध के द्वारा नए प्रमाण मिलने पर इन संख्याओं और वर्गीकरण में भी परिवर्तन संभव है। सामान्यतः संसार की भाषाएँ निम्नांकित मुख्य कुलों में विभक्त की गई हैं:

  1. भारत-यूरोपीय अथवा भारोपीय कुल
  2. सामी अथवा सेमेटिक कुल
  3. हामी अथवा हेमेटिक कुल
  4. तिब्बती-चीनी कुल
  5. यूराल-अलटाइक कुल
  6. द्रविड़ कुल
  7. मलय या मैले-पालोनेशियन कुल
  8. बंटू कुल
  9. मध्य-अफ्रीका कुल
  10. अमेरिकी कुल
  11. जापानी-कोरियाई कुल
  12. आस्ट्रिक कुल
  • इनके अतिरिक्त कॉकेशियन, आस्ट्रेलियाई, पापुई, सुडानी, बुशमैन, बास्क तथा यूट्र्स्कन आदि भाषा-परिवारों का उल्लेख भी किया जाता है। इन भाषाओं का ठीक-ठीक वर्गीकरण अभी तक नहीं किया जा सका है इसीलिए कभी इनकी स्वतंत्र सत्ता मान ली जाती है तो कभी किसी अन्य भाषा-परिवार में इनका विलय कर दिया जाता है। चूँकि हिंदी का संबंध भारोपीय भाषा परिवार से है इसलिए उपर्युक्त भाषा-परिवारों में से केवल भारोपीय का ही विस्तृत उल्लेख यहाँ किया जाएगा।

भारोपीय भाषा परिवार[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

भारोपीय (भारत+यूरोप) कुल की भाषाएँ नाम के अनुसार ही प्रायः संपूर्ण यूरोप, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान तथा उत्तर-भारत में बोली जाती हैं। अस्कोली के कंठ्य ध्वनियों के विकास (परिवर्तन) के आधार पर इन भाषाओं को दो समूहों—'शतम्' और 'केंतुम्'— में विभक्त किया जाता है। शतम् समूह में उन शाखाओं की भाषाएँ रखी गईं जिनकी कंठ्य ध्वनियाँ (क, ख आदि) अपने मूल रूप में विद्यमान रहीं। वहीं शतम् या सतम् समूह में उन शाखाओं की भाषाएँ रखी गईं जिनमें कंठ्य ध्वनियाँ (क, ख आदि) संघर्षी ध्वनियों (श, स आदि) में परिवर्तित हो गईं। इस वर्गीकरण को 'सौ' (hundred) के सजातीय अर्थ (cognate) से भली-भाँति समझा जा सकता है। जैसे— लैटिन में सौ को केंतुम (centum), वैदिक (संस्कृत) में 'शतम्' और अवेस्ता (ईरानी) में 'सतम्' कहते हैं। वस्तुतः अस्कोली ने अवेस्ता के 'सतम्' और लैटिन के 'केन्तुम्' को ही अपने सिद्धांत का आधार बनाया। हालांकि शतम् शब्द का प्रयोग वैदिक संस्कृत में किया गया है और ऐसा माना जाता है कि शतम् से सतम् का रूप विकसित हुआ होगा न कि सतम् से शतम् का। हालांकि एक उदाहरण के आधार पर भाषाओं के वर्गीकरण को भी कुछ भाषाविद अनुचित मानते हैं।[3]

शतम् समूह[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

1. आर्य अथवा भारत-ईरानी

इस उपकुल में तीन प्रमुख शाखाएँ हैं—भारतीय आर्यभाषाएँ, ईरानी और दरद या पैशाची।[4]

2. आरमेनियन

आरमेनियन आर्य उपकुल के पश्चिम में पायी जाती है। इसमें ईरानी शब्दों की बहुलता है। यह यूरोप और एशिया की भाषाओं के मध्य में स्थित है।[4]

3. बाल्टो-स्लाविक

काले सागर के उत्तर में इस उपकुल का विस्तार माना जाता है। आर्य उपकुल की भाँति इसी भी विभिन्न शाखाएँ हैं। बाल्टिक शाखा में लिथुआनियन, लेटिश और प्राचीन प्रशियन बोलियाँ शामिल हैं। स्लाविक शाखा में बुलगेरिया की प्राचीन भाषा, रूस की भाषाएँ, सर्बियन, स्लावी, पोलिश, ज़ेक अथवा बोहेमियन आदि प्रमुख हैं।[4]

4. अलबेनियन

'शतम समूह' का अंतिम उपकुल जिस पर आरमेनियन की भाँति ही निकटवर्ती भाषाओं का बहुत प्रभाव है। इस उपकुल में प्राचीन साहित्य का प्रायः अभाव है।[4]

केंतुम समूह[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

1. ग्रीक

'केंतुम समूह' की भाषाओं में सबसे प्राचीन उपकुल। होमर ने 'इलियड' और 'ओडेसी' नामक महाकाव्य की रचना प्राचीन ग्रीक में ही की। सुकरात, प्लेटो व अरस्तू जैसे दार्शनिकों के मूलग्रंथ इसी भाषा में रचित हैं। यूनान में आज भी इसी प्राचीन भाषा की बोलियों में से ही एक नए रूप का व्यवहार किया जाता है।[4]

2. इटैलिक

इटैलियन, फ़्रेंच, स्पेनिश, पुर्तगाली, रोमानियन आदि इटैलिक क्षेत्र की पाँचों भाषाओं का विकास लैटिन से हुआ।[5] प्राचीन रोमन साम्राज्य की भाषा होने के कारण यह उपकुल विशेष आदरणीय हो गया। यूरोप की प्रायः सभी आधुनिक भाषाओं पर लैटिन और ग्रीक का प्रभाव माना जा सकता है। वैज्ञानिक और विभिन्न पारिभाषिक शब्दावलियों का निर्माण भी प्रायः इन्हीं प्राचीन भाषाओं के सहारे किया जाता है।[6]

3. केल्टिक

इस उपकुल की एक शाखा आयरलैंड में तथा दूसरी ग्रेट ब्रिटेन (स्कॉटलैंड, वेल्स तथा कार्नवाल) में पायी जाती है। इस उपकुल की एक प्राचीन भाषा गाल अब मृतप्राय है।[7]

4. जर्मनिक अथवा ट्यूटैनिक

गाथिक और नार्स भाषाओं में इस उपकुल का प्राचीन रूप विद्यमान है। नार्स से स्वीडेन, डेनमार्क, आइसलैंड आदि की भाषाएँ विकसित हुई हैं। जर्मन, डच, फ़्लेमिश तथा अंग्रेज़ी आदि भाषाएँ भी इसी उपकुल की सदस्य हैं।[7]

भारतीय आर्यभाषाएँ[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

काल की दृष्टि से भारतीय आर्यभाषाएँ तीन वर्गों में विभक्त की गई हैं[8]:

  1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा—1500 ई॰पू॰ से 500 ई॰पू॰ तक।
  2. मध्य भारतीय आर्यभाषा—500 ई॰पू॰ से 1000 ई॰ तक।
  3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा—1000 ई॰ से आज तक।

यह जानने के लिए कि आधुनिक आर्यभाषा के रूप में हिंदी अपनी पूर्ववर्ती भाषिक अवस्थाओं से कितनी प्रभावित हुई, इनका संक्षिप्त परिचय आवश्यक है।

प्राचीन भारतीय आर्यभाषा[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

संस्कृत इस काल की प्रमुख भाषा रही। इसमें भी दो अवस्थाएँ मानी जाती हैं — वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत। वैदिक संस्कृत का काल लगभग 1000 ई॰पू॰ से 500 ई॰पू॰ तक है। वैदिक संस्कृत का रूप वैदिक संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद आदि ग्रंथों में मिलता है।[9] वैदिक संस्कृत में भाषा का रूप-वैविध्य लौकिक संस्कृत की तुलना में अधिक था। वैदिक भाषा श्लिष्ट योगात्मक थी। वैदिक संस्कृत की रूप रचना में विविधता है। जैसे–प्रथमा विभक्ति बहुवचन में देव शब्द के 'देवाः' और 'देवासः', तृतीय विभक्ति बहुवचन में 'देवैः' और 'देवेभिः' दोनों रूप होते हैं। लौकिक संस्कृत में आकर यह अधिक व्यवस्थित हो गया। अपवादों और भेदों की कमी हो गयी। उदाहरण के तौर पर पूर्वोक्त दोनों वैकल्पिक रूप छँट गये और एक-एक रूप (देवाः तथा दैवैः) को ही मान्यता मिली। वैदिक संस्कृत स्वर-प्रधान है जबकि लौकिक संस्कृत में बलाघात की प्रधानता हो गई। वैदिक संस्कृत में उपसर्ग का प्रयोग मूल शब्द से हटकर भी हो सकता है किंतु लौकिक संस्कृत में नहीं। जैसे—परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः। (ऋग्वेद, 1–4–3) इस मंत्र में 'परि' उपसर्ग 'यन्ति' (क्रिया) के साथ होना चाहिए था लेकिन वह इससे अलग प्रयुक्त हुआ। लौकिक संस्कृत में यह प्रवृत्ति दिखायी नहीं पड़ती।[10]

संदर्भ[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

  1. वर्मा, धीरेंद्र (1933). हिंदी भाषा और लिपि (1996 ed.). इलाहाबाद: हिंदुस्तानी एकेडमी. pp. 10–13. 
  2. सीताराम झा 2015, p. 47.
  3. सीताराम झा 2015, pp. 57-58.
  4. 4.0 4.1 4.2 4.3 4.4 धीरेंद्र वर्मा 2016, p. 7.
  5. देवेन्द्रनाथ शर्मा 2004, p. 16.
  6. धीरेंद्र वर्मा 2016, pp. 7-8.
  7. 7.0 7.1 धीरेंद्र वर्मा 2016, p. 8.
  8. देवेन्द्रनाथ शर्मा 2004, p. 26.
  9. भोलानाथ तिवारी 2017, p. 13.
  10. देवेंद्रनाथ शर्मा 2004, p. 27.

स्रोत[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

  • झा, सीताराम. भाषा विज्ञान तथा हिन्दी भाषा का वैज्ञानिक विश्लेषण (2015 ed.). पटना: बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी. ISBN 978-93-83021-84-0. 
  • वर्मा, धीरेंद्र (1933). हिंदी भाषा का इतिहास (2016 ed.). इलाहाबाद: हिंदी एकेडमी. ISBN 978-93-85185-03-8. 
  • शर्मा, देवेन्द्रनाथ (2004). हिन्दी भाषा और नागरी लिपि. प्रयाग: हिन्दी साहित्य सम्मेलन. 
  • तिवारी, भोलानाथ (2017). हिन्दी भाषा और नागरी लिपि. इलाहाबाद: लोकभारती प्रकाशन. 

वीडियो व्याख्यान[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]