भाषाविज्ञान/वाक्य परिवर्तन के कारण

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भाषा अपने मूल स्वभाव में प्रवाहमान और परिवर्तनशील होती है। अपने विकास के क्रम में वह विभिन्न परिवर्तनों से गुजरती है। चूंकि भाषा का प्रयोग मनुष्य बहुधा वाक्यों में ही करता है, इसलिए वाक्य-रचना का परिवर्तित होना भी अवश्यम्भावी है। वाक्य-परिवर्तन के कारणों को निम्नांकित रूपों में दर्शाया जा सकता है :

1. प्रयोग की नवीनता
प्रयोग की नवीनता के कारण वाक्य रचना पद्धति में परिवर्तन आते हैं। वक्ता या लेखक अपने लेख में नवीनता लाने के लिए नए-नए प्रयोग करते रहते हैं। कुछ वक्ता परस्पर प्रयुक्त हो रहे वाक्यों के पद-क्रम में थोड़े बहुत परिवर्तन कर अधिक आकर्षण या प्रभाव पैदा करना चाहते हैं।[1] उदाहरण के लिए हिंदी में मात्र का प्रयोग संज्ञा के बाद होता रहा है, लेकिन नवीनता के लिए संज्ञा के पहले इसका प्रयोग होने लगा। जैसे:- 'मुझे मात्र पुस्तक चाहिए' का 'मात्र पुस्तक चाहिए मुझे' हो जाना। कुछ इसी प्रकार प्रश्नवाचक वाक्यों में भी परिवर्तन हो जाता है। जैसे - 'तुम वहाँ जाकर क्या करोगे?' से 'क्या करोगे तुम वहाँ जाकर' में परिवर्तित हो जाना।
2. अपर या अन्य भाषाओं से निकटता
जिन भाषाओं में साहित्य, प्रशासन और बोलचाल की दृष्टि से परस्पर घनिष्ठता स्थापित हो जाती है, उनके वाक्य-गठन में कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य होता है।[1] एक भाषा-भाषी समुदाय जब दूसरे भाषा-भाषी समुदाय के राजनीतिक प्रभाव में आता है तो उसकी लगभग अनिवार्यता हो जाती है कि वह दूसरे भाषा की वाक्यात्मक संरचना का कुछ ना कुछ अंश ग्रहण करे। मुगल शासन के प्रभाव के परिणाम स्वरूप आदर के लिए बहुवचन का प्रयोग फ़ारसी से हिंदी में आया। जैसे - 'मेरा नौकर आ रहा है'; 'मेरे पिता आ रहे हैं'। हिंदी में 'कि' का प्रयोग भी फ़ारसी का प्रभाव है। जैसे - 'मैं चाहता हूँ कि वह चला जाए'।
3. परसर्गों (Postposition) की अधिकता या विभक्तियों (Inflect) का घिस जाना
संसार की बहुत सारी भाषाएँ संयोगात्मक थी लेकिन कालांतर में वियोगात्मक हो गई। प्राचीन भाषाओं - संस्कृत, लैटिन आदि और आधुनिक भाषाओँ - हिंदी, अंग्रेजी आदि के वाक्य गठन में बहुत परिवर्तन हो गया है। विभक्तियों के घिस जाने से अर्थ को समझने में कठिनाई होने लगी और वाक्यों में परसर्ग या सहायक क्रिया जोड़े जाने लगे।[2] हिंदी-अंग्रेजी जैसी भाषाओं में परसर्गों का प्रयोग अधिक होता है, अतः उनके वाक्यों में पद-क्रम निश्चित करना आवश्यक हो जाता है। योगात्मक भाषाओं के वाक्य के पद क्रम निश्चित नहीं होते, लेकिन वियोगात्मक भाषाओं के पद क्रम निश्चित होते हैं। जैसे - 'भाषाविज्ञान और काव्यशास्त्र एक दूसरे के पूरक होते हैं।' यहाँ सभी पदों का क्रम निश्चित है। भाषाविज्ञान और काव्यशास्त्र संज्ञा और पूरक उसकी विशेषता को दर्शा रहा है।
4. संक्षिप्तता या लाघव
संक्षिप्तता के कारण भी वाक्य में परिवर्तन होता है। सामान्यतः लोग कम से कम मेहनत करके अधिक से अधिक फल पाना चाहते हैं। इस प्रवृत्ति के कारण भी वाक्य-गठन में प्रत्यय और पदों का लोप हो जाता है। जैसे - 'आँखों से देखी गई बात सच होती है' के स्थान पर 'आँखों देखी बात सच होती है'। 'जिसको मैंने देखा नहीं, जिसके बारे में मैंने सुना नहीं, फिर उसके बारें में आपसे क्या कहूँ?' का 'देखा नहीं, सुना नहीं, फिर क्या कहूँ?' के रूप में परिवर्तित हो जाना।
5. स्पष्टता या बलाघात
कभी-कभी किसी बात को स्पष्ट करने के लिए वक्ता या लेखक संकेत-चिह्न (डैश), कोष्ठक, अल्पविराम, उद्धरणचिह्न आदि का अधिक प्रयोग करता है। इस कारण वाक्य लंबा होने के साथ ही उसका गठन भी परिवर्तित हो जाता है।[3] जैसे - 'अमरेंद्र बाहुबली यानि मैं! माहिष्मति की असंख्य प्रजा एवं उनके धन-मान और प्राण का रक्षक और महाराज भल्लालदेव की सर्वसेना का अध्यक्ष, निरंतर अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए; अगर मुझे अपने प्राण भी त्यागना पड़े तो संकोच नहीं करूंगा, 'राजमाता शिवगामी देवी' को साक्षी मानकर मैं ये शपथ लेता हूँ।' कथन को अधिक स्पष्ट रूप देने के कारण वाक्य में अतिरिक्त शब्द आ जाते हैं जो वाक्य में परिवर्तन कर देते है। जैसे - 'कृपया कल आइएगा'। 'आइएगा' अपने आप में आदर सूचक है अतः 'कृपया' की आवश्यकता नहीं थी। इसी प्रकार - 'He is returning back'. इसमें 'back' अनावश्यक है। बलाघात के कारण भी वाक्य में परिवर्तन होता है। जैसे:- 'राम कानपुर ही जाता है' के स्थान पर 'राम कान ही पुर जाता है' या स्वाभाविक पदक्रम के अनुसार कोई कहे 'मैंने रोटी खायी है।' किन्तु यदि 'रोटी' पद पर बल देना है तो यह वाक्य 'रोटी मैंने खायी है' के रूप में प्रयुक्त होगा।
6. मानसिक स्थिति
वाक्य-गठन वक्ता की मानसिक स्थिति पर बहुत कुछ निर्भर करता है। किसी प्रसन्न व्यक्ति की वाक्य रचना किसी दुःखी व्यक्ति की वाक्य रचना से भिन्न होती है। दुःखी व्यक्ति अलंकृत वाक्यों का प्रयोग कभी नहीं करेगा। उसी प्रकार देखा जाय तो संकट काल में मनुष्य अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति घुमाफिराकर करने की बजाय सीधे-सीधे करता है।[4]

फुटनोट[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

  1. 1.0 1.1 सीताराम झा 'श्याम' 2015, p. 204.
  2. भोलानाथ तिवारी 1951, p. 217.
  3. सीताराम झा 'श्याम' 2015, p. 206.
  4. भोलानाथ तिवारी 1951, p. 218.

स्रोत[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

  • झा, सीताराम (1983). भाषा विज्ञान तथा हिन्दी भाषा का वैज्ञानिक विश्लेषण (2015 ed.). पटना: बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी. p. 204. ISBN 978-93-83021-84-0.
  • तिवारी, भोलानाथ. भाषाविज्ञान (1951 ed.). इलाहाबाद: किताब महल प्राइवेट लिमिटेड. p. 217.