भाषाविज्ञान/स्वनों का वर्गीकरण
किसी भी भाषा में असंख्य स्वन (ध्वनि) हो सकते हैं। इन स्वनों को वर्गों में सीमित करना कठिन है। हालांकि इनको श्रवणीयता (सुनने की क्षमता), अनुनादिता (कंपन या गूँज), स्थान, करण एवं प्रयत्न आदि के आधार पर वर्गीकृत करने का प्रयास किया गया है। यहाँ हम सामान्य तौर पर इन्हीं आधारों पर स्वनों का वर्गीकरण समझने का प्रयास करेंगे।
श्रवणीयता
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]स्वन या ध्वनि उत्पादन क्रिया की सार्थकता श्रवणीयता में निहित है। इसीलिए माना जाता है कि भाषा प्रयोग के लिए कम से कम दो लोगों का होना आवश्यक है। एक जो बोल सके और दूसरा जो उसे सुन सके। सुनने वाले को भी सभी ध्वनियाँ एक ही तरह से सुनाई नहीं पड़तीं। मानव-मुख से निकली कुछ ध्वनियाँ बहुत दूर तक और देर तक सुनाई पड़ती हैं, तो कुछ बहुत कम समय के लिए कुछ ही दूरी तक सुनाई पड़ती हैं। इसके साथ-साथ इन दोनों के बीच भी ध्वनियों के अनेक प्रकार हो सकते हैं।[1]
अध्ययन की सुविधा के लिए श्रवणीयता के आधार पर स्वन को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है - स्वर, व्यंजन एवं अन्तःस्थ।
अनुनादिता
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]कुछ ध्वनियाँ ऐसी होती हैं जिनके उच्चारण में कंपन या गूँज अधिक होती है। ऐसी ध्वनियाँ ही अनुनादित कहलाती हैं। जैसे - ङ्, ञ्, न्, म्, अ, ऊ, आ, य, र, ल, व आदि। जिन ध्वनियों के उच्चरित होने में गूँज नहीं के बराबर होती है, वे निरनुनादित कहलाती हैं। जैसे - त्, ट् आदि।[2]
स्थान
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]स्वन उत्पत्ति के दौरान जहाँ निःश्वास को रोका जाता है या उसके रास्ते में अवरोध उत्पन्न होता है, उसे स्थान कहते हैं। विभिन्न ध्वनियों को भिन्न-भिन्न स्थानों से उच्चरित करना पड़ता है। इसीलिए स्थान के आधार पर ध्वनियों के अनेक वर्ग हो जाते हैं।[3]
करण
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]उच्चारण की प्रक्रिया में जो वागीन्द्रियाँ चल होती हैं, वे करण कहलाती हैं। चल कहने से तात्पर्य है कि ध्वनियों के उच्चारण के समय जिन्हें आवश्यकतानुसार ऊपर उठाया जा सके या फिर नीचे लाया जा सके। करण मुख्यतः तीन हैं - जिह्वा (अपने सभी भागों के साथ), ओष्ठ (जबड़ा सहित) तथा स्वरतंत्रियाँ। अनुनासिक वर्णों के उच्चारण में सहायक होने के कारण कोमल तालु भी करण में गिना जाता है।[3]
प्रयत्न
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण के समय वाग्यंत्र के अवयवों के प्रयोग में जो विशेष सजगता बरतनी पड़ती है, उसे ही प्रयत्न कहते हैं। ये प्रयत्न भी दो स्तरों पर घटित होते हैं - आभ्यंतर एवं बाह्य। ओष्ठ से लेकर कंठ तक मुख-विवर का आभ्यंतर या भीतरी भाग है और कंठ से नीचे विशेषकर स्वरतंत्री बाहरी भाग है।[3]
संदर्भ
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]- ↑ सीताराम झा 2015, p. 118.
- ↑ सीताराम झा 2015, p. 118-19.
- ↑ 3.0 3.1 3.2 सीताराम झा 2015, p. 119.
स्रोत
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]झा, सीताराम. भाषा विज्ञान तथा हिन्दी भाषा का वैज्ञानिक विश्लेषण (2015 ed.). पटना: बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी. ISBN 978-93-83021-84-0.