भाषाविज्ञान/स्वनिम परिवर्तन के कारण

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ऐतिहासिक भाषाविज्ञान में, स्वनिमिक परिवर्तन (Phonological change) कोई भी ध्वनि परिवर्तन है जो किसी भाषा में स्वनिमों के वितरण को बदल देता है। दूसरे शब्दों में, एक भाषा अपने स्वनिमों के बीच विरुद्धों (oppositions) की एक नई प्रणाली विकसित कर लेती है। पुराने व्यतिरेक (contrasts) गायब हो सकते हैं, कुछेक नए उभर सकते हैं, या वे बस पुनर्व्यवस्थित हो सकते हैं। ध्वनि परिवर्तन भाषा की स्वनिमिक संरचनाओं (Phonological structures) में परिवर्तन के लिए एक प्रेरक हो सकता है। ठीक इसी तरह, स्वनिमिक परिवर्तन ध्वनि परिवर्तन की प्रक्रिया को भी प्रभावित कर सकता है।

स्वन परिवर्तन (Phonetic) बनाम स्वनिक परिवर्तन (Phonological)[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

स्वनिम सूची या स्वनिमिक तालमेल में किसी भी संशोधन के बिना भी ध्वन्यात्मक परिवर्तन हो सकता है। यह परिवर्तन विशुद्ध रूप से सहस्वनिक या उपस्वनिक होता है। यह दो बदलावों में से किसी एक रूप में घटित हो सकता है। या तो स्वनिम एक नए सहस्वन में बदल जाता है (जिसका अर्थ है कि ध्वन्यात्मक रूप बदल जाता है) या स्वनिम के सहस्वन का वितरण परिवर्तित हो जाता है।[1]

स्वनिक परिवर्तन के कारण[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

ध्वनि परिवर्तन चाहे लंबे समय तक चलने वाली प्रक्रिया का परिणाम हो या कम समय की प्रक्रिया का, कभी भी बिना कारण नहीं होता है। ध्वनि परिवर्तन के पीछे कोई न कोई भाषिक या भाषिकेतर कारण अवश्य होता है।[2] विभिन्न भाषाओं के ध्वन्यात्मक परिवर्तनों का विश्लेषण करने पर देखा गया है कि ये कारण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं - आदेशात्मक (substitutive) तथा विकासात्मक (evolutive)।[3]

आदेशात्मक कारण

आदेशात्मक कारणों के दो रूप होते हैं - उच्चारणगत तथा श्रवणगत। प्रथम का संबंध वक्ता के साथ होता है तो दूसरे का श्रोता के साथ। चूँकि वाग्व्यवहार का संबंध हमेशा ही उच्चारण तथा सुनने की क्रियाओं के साथ होता है, इसलिए इन दोनों ही छोर पर इसमें विकार या परिवर्तन की संभावना बनी रहती है। अकेला आदमी होगा तो वाग्व्यवहार की कोई संभावना न होने से उसमें विकार की संभावना भी व्यक्त नहीं की जा सकती। इन दो छोरों पर होने वाले परिवर्तनों के मूल कारणों पर विचार करें तो आदेशात्मक कारणों के अनेक रूप हो सकते हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख उल्लेखनीय कारण यहाँ बताए जा रहे हैं। इनमें से भी कुछ को कालांतर में कम महत्वपूर्ण माना गया या लगभग अमान्य ही कर दिया गया।

वाग्यंत्रों की विविधता

यह लगभग मानी हुई बात है कि किन्हीं भी दो व्यक्तियों की वाग्यंत्र समान नहीं हो सकते। यही कारण है कि उनके उच्चारणों में भी अंतर आ जाना स्वाभाविक है। कई बार यह अंतर वाक् दोष के कारण भी हो सकता है किन्तु यह मानना उचित नहीं कि इसी से भाषा में ध्वनि-परिवर्तन हो जाया करते हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति में ऐसी शक्ति नहीं हो सकती कि वह अपने संपूर्ण भाषाई समाज पर अपने उच्चारण को आरोपित कर दे, न ही कोई ऐसी शक्ति है जो कि किसी ध्वन्यात्मक परिवर्तन का सामान्यीकरण कर सके।

प्रयत्न लाघव

प्रयत्न लाघव का अर्थ है ध्वनि उत्पादन या उच्चारण के प्रयत्न को लघु कर देना। इसे उच्चारण की सुविधा या मुखसुख भी कह दिया जाता है। इसे लगभग सभी भाषाओं में ध्वनि-परिवर्तन का प्रमुख कारण समझा जाता है। उच्चारण की सुविधा या थोड़े शब्दों से अभीष्ट अर्थ का बोध कराने के इच्छुक लोग प्रायः शब्दों को सरल या संक्षिप्त करके बोला करते हैं। सुविधाजनक होने के कारण बड़ी जल्दी इस प्रकार की प्रवृत्तियों का अनुकरण भी किया जाने लगता है। इसका परिणाम यह होता है कि मूल ध्वनियों के स्थान पर सरल एवं संक्षिप्त ध्वनि-समूह प्रयोग में आने लगते हैं। अंग्रेज़ी में विशेष रूप से यह परंपरा प्रचलित है। जैसे - कोरोना वायरस डिजीज-19 के लिए कोविड-19, टेलीविजन के लिए टी॰वी॰, रेफ्रिजरेटर के लिए फ्रिज या एयरोप्लेन के लिए प्लेन आदि। हिंदी में 'अब ही' का 'अभी', 'तब ही' का 'तभी' या 'कब ही' का 'कभी' इसी प्रवृत्ति का परिचायक हैं। आधुनिक ही नहीं प्राचीन भाषाओं में भी लाघव की प्रवृत्ति देखी जाती है। जैसे - संस्कृत में इंद्र का पर्यायवाची शक्र 'शतक्रतु' (सौ यज्ञों को करने वाला) का लघु रूप है। इसी प्रकार शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द 'सुदी' और 'बदी' शुक्ल दिवस या शुदि और बहुल दिवस या बदि का ही लघु रूप है। कभी-कभी उच्चारण सुविधा के लिए नई ध्वनि जोड़ भी लेते हैं, इसलिए कुछ लोग स्कूल को इस्कूल और स्टेशन को इस्टेशन कहते हैं।

प्रयत्न लाघव के संबंध में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि संस्कृत तथा प्राकृत के ध्वनि परिवर्तन के मूल में यह प्रवृत्ति सबसे अधिक कार्यशील दिखाई देती है। अघोष व्यंजनों का लोप तथा संयुक्त व्यंजनों का सरलीकरण या समीकरण इसी प्रवृत्ति के अधीन हुआ है। मुखसुख का ही परिणाम है कि हिंदी में बज्राङ्ग का बजरंग, ब्राह्मण का बाभन, ब्रह्म का ब्रम्ह, चिह्न का चिन्ह या चक्र का चक्कर हो गया।

अज्ञान और अपूर्ण अनुकरण

भाषा अनुकरण द्वारा सीखी जाती है किन्तु यह अनुकरण हमेशा पूर्ण नहीं होता और इसलिए अपूर्ण अनुकरण ध्वनि परिवर्तन को जन्म देता रहता है। कभी-कभी श्रवणेंद्रियों की विफलता या दोनों भाषाओं में ध्वनि के प्रक्रियात्मक विभेदों के कारण श्रोता किन्हीं ध्वनियों को उनके मूल रूप से कुछ भिन्न रूप में सुनता है फिर उन्हें उसी रूप में प्रयुक्त करने लगता है। जैसे - यूनीवर्सिटी का एनभरसिटी, गवर्नमेंट का गोरमिंट, सर्टिफिकेट का साटीफिकेट, आचार्य का अचार्ज आदि। जैसे बच्चा भी सुनता तो है रुपया किंतु अनुकरण से कह पाता है नुपया या लुपया। अनुकरण की अपूर्णता प्रायः अज्ञान पर आधारित रहती हैं, अर्थात जिन्हें शब्दों का ठीक-ठाक ज्ञान नहीं रहता वे ही पूर्ण या सही अनुकरण नहीं कर पाते।

भावातिरेक

भावुकता के कारण भी शब्दों में पर्याप्त ध्वनि परिवर्तन देखा जाता है। स्नेह की अधिकता या भावावेश में वाग्ध्वनियाँ सहज ही प्रभावित हो जाया करती हैं। इसके कारण सामान्य ध्वनिक्रम में व्यतिरेक उत्पन्न जाता है। जब हम किसी विशेष भाव के कारण किसी शब्द के ध्वनियों में परिवर्तन करते हैं तो भी ध्वनि परिवर्तन होता है। विशेषतः लोक प्रचलित व्यक्तिवाचक नाम तो अधिकांशतः इसी ध्वनि परिवर्तन के परिणाम है। हिंदी में बधू या बहू का बहुरिया, कृष्ण का कान्हा, कन्हैया या कन्हाई, चाची का चचिया, बेटी का बिटिया, राम का रमुआ आदि इसी प्रवृत्ति को दर्शाते हैं।

विदेशी प्रभाव

जब कोई भाषा-भाषी समुदाय किसी दूसरी भाषा के सम्पर्क में आता है, और उस विदेशी भाषा में यदि कुछ ऐसी ध्वनियाँ रहती हैं जो उनकी अपनी भाषा में नहीं रहती, तो प्रायः वह उस भाषा के अपना लिये गये शब्दों में उस भाषा की ध्वनियों के स्थान पर अपनी भाषा की उनसे मिलती-जुलती या निकटतम ध्वनियों का प्रयोग करता है। इस प्रक्रिया में भी ध्वनि परिवर्तन हो जाता है। जैसे - अंग्रेजी का ट तथा ड ध्वनि वर्त्स है जबकि हिन्दी की ट तथा ड ध्वनि मूर्द्धन्य, इस कारण रिपोर्ट शब्द को बोलते वक्त हिन्दी और अंग्रेजी भाषा भाषियों में अंतर होता है। कोलकाला का कैलकटा हो जाना इसी प्रवृत्ति को दर्शाता है।

भ्रामक व्युत्पत्ति

कई बार किसी दूसरी भाषा के किसी शब्द को भ्रम से श्रोता अपनी भाषा के किसी समकक्ष ध्वनि वाले शब्द के साथ जोड़ देता है। आशय यह कि जब लोग किसी अपरिचित शब्द के संसर्ग में आते हैं और यदि उससे मिलता-जुलता कोई शब्द उनकी भाषा में पहले से रहता है तो उस अपरिचित शब्द के स्थान पर उस परिचित शब्द का ही उच्चारण करने लगते हैं और इस प्रकार ध्वनि परिवर्तन हो जाता है। भ्रामक या लौकिक व्युत्पत्ति, अज्ञान और अपूर्णता से भी कभी-कभी प्रभावित होती है। अरबी का इंतिकाल शब्द इसी कारण हिन्दी का अंतकाल हो गया। इसी तरह अंग्रेज़ी का 'आर्म्ड चेयर' हिंदी में 'आराम कुर्सी' हो गया।

विकासात्मक कारण

ध्वनियों के विकासात्मक परिवर्तन के मूल में भी अनेक आन्तरिक एवं बाह्य कारणों का योग हुआ करता है। इनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार माने जाते हैं।

बलाघात

बलाघात भाषा का प्राण होता है। प्रायः सभी भाषाओं की ध्वनियों के विकास के मूल में यह मुख्य कारण हुआ करता है। प्राचीन ध्वनियों के ह्रास, नवीन ध्वनियों के विकास तथा ध्वनियों में होने वाले विभिन्न प्रकार के ध्वन्यात्मक परिवर्तन का कारण यही बलाघात प्रक्रिया है। संस्कृत के स्वराघात अथवा संगीतात्मक आघात का जब बलाघात में विकास हुआ तो अनेक मूल ध्वनियाँ या तो विकृत हो गईं या उनका लोप हो गया। उपाध्याय का ओझा या झा, कण्टक का काँटा तथा नयन का नैन बन गया। चूँकि किसी ध्वनि पर बल देने में श्वास का अधिक भाग उसी के उच्चारण में व्यय करना पड़ता है, इसलिए होता यह है कि आस-पास की ध्वनियाँ कमजोर पड़ जाती हैं और धीरे-धीरे उनका लोप हो जाता है। अभ्यंतर के ‘भ्यं’ पर बल पड़ने के कारण ही ‘अ’ लुप्त हो गया और भीतर शब्द बन गया। इसी तरह बाजार से बजार, आकाश से अकास आदि परिवर्तन हुए।

सादृश्य

सादृश्य से तात्पर्य है किसी शब्द का ध्वन्यात्मक परिवर्तन उस भाषा की सामान्य ध्वन्यात्मक प्रवृत्ति के अनुरूप न होकर किसी अन्य शब्द के ध्वन्यात्मक रूप को सम्मुख रखकर तदनुरूप कर दिया जाता है। भाषाओं में अथवा ध्वनियों के विकास में इसका महत्वपूर्ण स्थान होता है। कुछ शब्द किसी दूसरे के सादृश्य के कारण अपनी ध्वनियों का परिवर्तन कर लेते हैं। जैसे - पैंतिस के सादृश्य पर सैतिस में कई बार अनुनासिकता (सैंतिस) आ जाती है। इसी तरह स्वर्ग के सादृश्य पर नरक का नर्क हो गया। द्वादश के सादृश्य में एकदश का एकादश होना भी इसी परिपाटी पर आधारित है। ध्यातव्य है कि सादृश्य कारण न होकर कार्य है।

अतिसजगता या आत्म-प्रदर्शन

कई लोग इतने शुद्धतावादी होते हैं कि वे अपने उच्चारण के प्रति बहुत ज्यादा ही सतर्क हो जाते है फलस्वरूप किसी सही शब्द के ध्वनियों को भी वह अपने सतर्कता के कारण बदल देते हैं। जैसे - कई लोग अरबी के शब्द जैसे ख़बर, ज़लील आदि का उच्चारण ठीक-ठीक नहीं कर पाते पर शुद्धतावादी आत्म-प्रदर्शन के लिए इनका तो सही उच्चारण करेंगे ही बल्कि वे वहाँ भी नुक्ता का प्रयोग कर देंगे जहाँ वे होते भी नहीं और इसके कारण भी ध्वनि परिवर्तन देखने को मिलता है। धूमपान का धूम्रपान (वास्तविक अर्थ धूसरपान), शाप का श्राप, अचार का आचार आदि होना भी अतिसजगता का परिणाम माना जाएगा।

अंधविश्वास

देशी या विदेशी किसी भी प्रकार का शब्द जिनके विषय में हमें निश्चित ज्ञान नहीं है और जिनका उच्चारण हम हमेशा से अशुद्ध ही करते आयें हैं उनकें कारण भी ध्वनि परिवर्तन देखने को मिलता है। इनमें कई शब्द आते हैं जिनका सही रूप में हम उच्चारण कम से कम करना चाहते हैं और साथ ही कई बार तो अंधविश्वास के कारण लोग गलत शब्द को ही सही मान कर उसका उच्चारण करते हैं। जैसे गोभी को कोबी कहना।

संदर्भ[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

  1. Kipersky, Paul. "The phonological basis of sound change" (PDF). Stanford University. Stanford University. Retrieved 15 April 2020. 
  2. भोलानाथ तिवारी; उदयनारायण तिवारी; पाण्डुरंग दामोदर गुणे. तुलनात्मक भाषाविज्ञान. मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स. pp. 40–. ISBN 978-81-208-2952-7. 
  3. शर्मा, देवीदत्त. भाषिकी और संस्कृत भाषा (1990 ed.). चंडीगढ़: हरियाणा साहित्य अकादमी. p. 155-163.