भाषाविज्ञान/स्वन और वागीन्द्रिय

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किसी भी भाषा की आरंभिक इकाई स्वन या ध्वनि (Phone) है। स्वन या ध्वनि के अभाव में भाषा की कल्पना कठिन है। सामान्य व्यवहार में वे सभी तरंगें जो हमारे कानों से टकराती हैं एवं कुछ बोध उत्पन्न करती हैं उन्हें ध्वनि (sound) कहा जा सकता है। यहाँ ध्यान रखने की आवश्यकता है कि सभी प्रकार की ध्वनि को भाषाविज्ञान के अध्ययन का विषय नहीं बनाया जा सकता। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में मानव द्वारा उच्चरित या वागीन्द्रियों की सहायता से उत्पन्न ध्वनि का ही अध्ययन किया जाता है।

भाषिक ध्वनियों के उच्चारण की प्रक्रिया की शुरूआत फेफड़े द्वारा निःसृत वायु से होती है। उच्चारण यंत्र द्वारा भिन्न-भिन्न स्थलों पर इसी वायु को अवरूद्ध कर हम विभिन्न ध्वनियाँ उत्पन्न करते हैं। फेफड़ा पहला और महत्त्वपूर्ण उच्चारण अवयव है। फेफड़ों से निकलती वायु श्वास नली से होकर गुजरती है, अतः 'श्वास नलिका' भी एक महत्त्वपूर्ण उच्चारण अवयव है। फेफड़ा और श्वास नलिका उच्चारण अवयव हैं उच्चारण यंत्र नहीं, क्योंकि इन दोनों के माध्यम से निःसृत वायु प्रायः कोई ध्यवन्यात्मक स्वरूप नहीं पाती है।

उच्चारण तंत्र या वागींद्रिय[1] एवं उनकी क्रियाएँ निम्नलिखित हैं-

1. बाह्योष्ठ्य (exo-labial)
2. अन्तःओष्ठ्य (endo-labial)
3. दन्त्य (dental)
4. वर्त्स्य (alveolar)
5. उत्तर-वर्त्स्य (post-alveolar)
6. पूर्व-तालव्य (prä-palatal)
7. तालव्य (palatal)
8. मृदुतालव्य (velar)
9. अलिजिह्वीय (uvular)
10. ग्रसनी से (pharyngal)
11. काकलीय अथवा श्वासद्वारीय (glottal)
12. अभिकाकलीय (epiglottal)
13. जिह्वामूलीय (Radical)
14. पश्चपृष्ठीय (postero-dorsal)
15. अग्रपृष्ठीय (antero-dorsal)
16. जिह्वापाग्रीय (laminal)
17. जिह्वाग्रीय (apical)
18. उप-जिह्वापाग्रीय (sub-laminal)
1. स्वरयंत्र
स्वरयंत्र (larynx) स्वन की उत्पत्ति का आरंभिक अवयव है। यह श्वास नलिका से सटा हुआ तथा उसके ऊपरी भाग में अभिकाकल (epiglottis) से कुछ नीचे स्थित होता है। घोषध्वनि के उच्चारण में स्वरयंत्र में कंपन होता है, जैसे - ग, ज लेकिन अघोषध्वनि के उच्चारण में उसमें कंपन नहीं होता, जैसे - क, च आदि।
2. स्वर तंत्रियाँ
स्वरयंत्र में पत्तों की भांति दो लचीली तंत्रिकाएँ होती हैं जिन्हें स्वरतंत्री (vocal cord या vocal fold) कहते हैं। स्वर तंत्रियों को कंठबिल भी कहते हैं। इन स्वर तंत्रियों के बीच के खुले भाग को स्वरयंत्रमुख या काकल (glottis) कहते हैं[2]। बाहर से दुबले पतले मनुष्य में दिखाई पड़ जाने वाली उभरी घांटी या टेंटुआ यहीं होता है। काकल आवश्यकतानुसार छोटा या बड़ा होता है।

ध्वनियों के उत्पादन में स्वर तंत्रियों की मुख्य रूप से निम्नलिखित चार स्थितियाँ होती है-

क) श्वास प्रक्रिया एवं अघोष ध्वनियों के उच्चारण के समय इसके दोनों भाग शिथिल एवं निस्पंद पड़े रहते हैं और झिल्लियों के बीच भाग काकल से श्वास निस्पंद निकलती रहती है। अघोष ध्वनियों के उच्चारण के समय स्वर तंत्रियों में कोई कंपन नहीं होता। जैसे - क, च, ट, त, प आदि। अघोष महाप्राण ध्वनियों के उच्चारण के समय स्वर तंत्रियों के दोनों भाग कुछ समीप आ जाते हैं, इस स्थिति में ख्, फ्, छ् आदि ध्वनियाँ उच्चरित होती हैं।

ख) जब स्वर तंत्रियों के दोनों कपाट पास-पास आ जाते हैं, पर वह ढीले रहते वायु अपने निकलने का रास्ता बना लेती है। वायु के झटके से स्वर तंत्रियों में कंपन होने लगता है इस स्थिति में घोष ध्वनियां उत्पन्न होती हैं। जैसे - ग, घ, ङ, ज, झ, ञ, ड़, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म आदि। हिंदी ‌ की सभी स्वर ध्वनियां घोष हैं।

ग) तीसरी स्थिति में तंत्रियों को एक दूसरे के पास पूर्णता लाकर इस तरह से सटा दिया जाता है कि हवा किसी रूप में बाहर ना निकले। इस अवस्था में श्वास रगड़ और झटके के साथ निकलती है, इसे काकल्य स्पर्श ध्वनि उत्पन्न होती है। भारतीय भाषाओं में मुंडारी भाषा में मिलती है।

घ) चौथी अवस्था में स्वर तंत्रियों के दोनों भाग परस्पर मिल जाते हैं, परंतु नीचे की ओर थोड़ा भाग श्वास आने जाने के लिए खुला रहता है। इस खुले भाग से रगड़ खाकर निकलने वाली वायु के द्वारा एक प्रकार की फुसफुसाहट वाली ध्वनि उच्चरित होती है, लेकिन ध्वनियों के उच्चारण के समय स्वर तंत्रियों में कंपन नहीं होता है।

3. अभिकाकल
भोजन नली का के साथ साथ श्वास नलिका की ओर झुकी हुई एक छोटी सी जीभ जैसी होती है जिसे अभिकाकल या स्वर यंत्र मुख आवरण (epiglottis) कहते हैं। इसका कार्य भोजन के समय काकल को बंद करना कर देना है इसको बोलने से बहुत संबंध नहीं पर कतिपय ध्वनि शास्त्रियों का मत है कि यह मौखिक संगीत में क्रियाशील रहता है।
4. अलिजिह्वा
तालु के पीछे की ओर जीभ के स्वरूप का ही मांस का छोटा सा लटकता भाग उस स्थान पर होता है जहाँ से नासिका विवर और मुख विवर के रास्ते फूटते हैं। इस छोटे जीभनुमा अंग को अलिजिह्वा (uvula) कहते हैं। इसका भी कार्य कोमल तालु के साथ अभिकाकल (epiglottis) की भांति कभी-कभी मार्ग अवरुद्ध करना है। अलिजिह्वा कोमल तालु का अंतिम भाग है। 'हूँ' ध्वनियों के उच्चारण में अलिजिह्वा सहायक होती है, इसके अलावा अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में भी अलिजिह्वा सहायक है। अभिकाकल के एक ओर नासिका विवर है और दूसरी ओर मुखविवर। नासिका विवर सामान्यतः कोई ऐसा अंग नहीं जिससे ध्वनि उत्पन्न करने में कुछ विशेष सहायता मिलती हो, अतः उसे छोड़कर मुख विवर पर विचार किया जा सकता है।
5. तालु
मुख विवर में ऊपर की ओर तालु होता है। कंठ स्थान और दाँतों के बीच में क्रमशः 4 भाग होते हैं। पहला कोमल तालु, दूसरा मूर्द्धा, तीसरा कठोर तालु और चौथा वर्त्स। जिह्वा के विभिन्न भागों को इनसे स्पर्श कराकर विभिन्न ध्वनियाँ उच्चरित की जाती है।
6. जिह्वा
मुख विवर के निचले भाग में जिह्वा है। जिह्वा उच्चारण अवयवों में सबसे महत्वपूर्ण अवयव है। यही कारण है कि इस के पर्याय वाणी, अरबी में जबान या लैटिन में 'Langue' आदि भाषा के पर्याय बन गए हैं। प्राय: संसार के सभी भाषाओं की अधिकांश स्वर और व्यंजन ध्वनियां जिह्वा की ही सहायता से बोली जाती है। साधारण अवस्था में जीभ नीचे स्थिर लेटी रहती है। बोलने में वायु को अवरुद्ध करती है। जिह्वा के पाँच भाग माने जाते हैं- १) जिह्वा नोंक, २) जिह्वा अग्र, ३) जिह्वा मध्य, ४) जिह्वापश्च और ५) जिह्वा मूल। जीभ, दाँत तथा तालु के विभिन्न भागों को छूकर ध्वनियां का निर्माण करती है।
7. दाँत
दाँत भोजन करने के अतिरिक्त बोलने में भी हमारी सहायता करते हैं। दाँतों के ऊपर तथा नीचे की पंक्तियों में से ऊपरी पंक्ति के सामने वाले दाँत ही ध्वनि उत्पादन में विशेष सहायता देते हैं। ये दाँत नीचे के होंठ एवं जिह्वानोक के साथ मिलकर ध्वनियां उत्पन्न करने में सहायता देते हैं।
8. ओष्ठ
ओष्ठ, ओठ या होंठ के दो भाग होते हैं - ऊपर का एवं नीचे। ध्वनि उत्पादन में नीचे का होंठ ही अधिक क्रियाशील रहता है। पूर्ण रूप से बंद होकर ओष्ठ्य व्यंजनों और दाँतों के स्पर्श से दन्त्योष्ठ्य स्पृष्ट व्यंजनों की सृष्टि कर सकते हैं। हिंदी के पवर्ग ध्वनिया इसके अंतर्गत आती है।

अतिरिक्त चित्र[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

संदर्भ[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]

  1. देवेन्द्रनाथ शर्मा; दीप्ति शर्मा (2007). भाषाविज्ञान की भूमिका. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन. p. 192. ISBN 978-81-7119-537-4. 
  2. "Laver, John Principles of Phonetics, 1994, Cambridge University Press, P. 298