भाषाविज्ञान/स्वनिम विज्ञान
स्वनिमविज्ञान (Phonemics) पर विचार करने से पहले हमें यह जानने की आवश्यकता है कि स्वन या ध्वनि (Phone) की किसी भाषा में क्या भूमिका होती है। किसी भी भाषा का आरंभ ही स्वन या ध्वनि से होता है। ध्वनि के बिना भाषा की कल्पना कठिन है। भाषाविज्ञान की इस शाखा के अंतर्गत हम ध्वन्यात्मक भाषा का अध्ययन करते हैं। यहाँ ध्यान रखने की आवश्यकता है कि स्वन (Phone) और स्वनिम (Phoneme) में एक बुनियादी अंतर है। स्वन मानव मुख से निकली हुई किसी भी प्रकार की ध्वनि है, जबकि स्वनिम किसी भी भाषा की सार्थक ध्वनियों को ही माना जा सकता है। इसीलिए स्वन या ध्वनि परिवर्तन से ज़रूरी नहीं कि अर्थ परिवर्तन हो ही लेकिन स्वनिम के परिवर्तन से अर्थ परिवर्तन निश्चित है।
स्वनिमविज्ञान की अवधारणा
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]स्वनिमविज्ञान को किसी भी भाषा की सार्थक ध्वनियों की व्यवस्था का अध्ययन माना जा सकता है। स्वनिमविज्ञान अपनी मूल इकाई के रूप में स्वनिम (Phoneme) की संकल्पना करता है, साथ ही स्वन (Phone) तथा संस्वन, सहस्वन या उपस्वन (Allophone), उनके वितरण व अनुक्रम आदि का अध्ययन करता है।[1] स्वनिमवैज्ञानिक विश्लेषण में ध्वनिशास्त्री मानव मुख से निकलने वाली अनंत वाक् ध्वनियों को इस प्रकार कुछ सीमित ध्वनियों में व्यवस्थित करता है कि वे परस्पर अर्थभेदकता को अभिव्यक्त करने लगती हैं। अगर हम इस बात पर गौर करें तो समझ पाएंगे कि स्वनविज्ञान या ध्वनिविज्ञान (Phonetics) का अध्ययन करने वाले के लिए जहाँ मानव मुख से निकलने वाली प्रत्येक ध्वनि महत्वपूर्ण है वहीं स्वनिमविज्ञान (Phonemics) का अध्ययन करने वाले के लिए केवल उन्हीं ध्वनियों का महत्व है जो कि भाषा में प्रयुक्त होने पर एक-दूसरे से अर्थ भेद प्रकट कर सकें। स्वनिमविज्ञानी के लिए अन्य ध्वनियों का कोई महत्व नहीं है। इस रूप में कहा जा सकता है कि स्वनिमविज्ञानी का कार्य वहाँ से आरंभ होता है जहाँ पर कि स्वनविज्ञानी का कार्य समाप्त होता है।[2]
स्वनिम की परिभाषा
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]हालांकि स्वनिम की सर्वमान्य, निश्चित एवं दोषरहित परिभाषा प्रस्तुत करना थोड़ा कठिन है, फिर भी विभिन्न भाषाशास्त्रियों ने व्यावहारिक ढंग से इसे परिभाषित करने का प्रयास किया है। चूंकि इस विषय में मौलिक शोध एवं विश्लेषण केवल पाश्चात्य विद्वानों ने ही किया है, इसलिए यहाँ हम उन्हीं विद्वानों में से कुछ के द्वारा दी गई परिभाषा के माध्यम से स्वनिम को समझने की कोशिश करेंगे।
- ब्लूमफील्ड के अनुसार 'परिच्छेदक ध्वनि-अभिलक्षण की लघुतम इकाई, स्वनिम है।'[3] (A minimum unit of distinctive sound feature, a phoneme.)
- डेनियल जोन्स मानते हैं कि, "स्वनिम किसी भाषा की उन ध्वनियों का परिवार होता है जो परस्पर अपने ध्वनिगुणों के कारण संबद्ध होते हुए भी इस प्रकार प्रयुक्त किये जाते हैं कि कोई भी सदस्य किसी भी शब्द में कभी भी उसी ध्वन्यात्मक परिवेश में नहीं आता जिसमें कि अन्य सदस्य आता है।" (A phoneme is a family of sounds in a given language which are related in character and are used in such a way that no one member ever occurs in a word in the same phonetic context as any other member.)[4]
- ब्लॉक तथा ट्रैगर के अनुसार "स्वनिम मिलती-जुलती ध्वनियों का एक ध्वन्यात्मक वर्ग है, जो भाषा में सभी समान वर्गों के साथ व्यतिरेकी और परस्पर अनन्य है।" (A phoneme is a class of phonetically similar sounds contrasting and mutually exclusive with all similar classes in the language.[5])
स्वनिम (phoneme) और संस्वन या उपस्वन (allophone)
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]भाषावैज्ञानिकों द्वारा किसी भी भाषा की अनंत ध्वनियों को स्वन (phone), स्वनिम (phoneme) तथा संस्वन या उपस्वन (allophone) के रूप में व्यवस्थित किया जाता है। इनमें जहाँ स्वनों और संस्वनों की संख्या व रूप अपरिमित होते हैं वहीं स्वनिमों की संख्या हमेशा परिमित (15 से 60 के बीच) होती है। स्वनिम और संस्वन के बीच अंतर को निम्नानुसार स्पष्ट किया जा सकता है[6] :
- स्वनिम अर्थभेदक (distinctive) होते हैं, जबकि संस्वन अभेदक (non-distinctive) होते हैं।
- स्वनिम संस्वनों का वर्ग (प्रतिनिधि) होता है, संस्वन स्वनिम के विभिन्न सदस्य होते हैं।
- स्वनिम में जहाँ कई संस्वन शामिल रहते हैं, वहीं संस्वन में कोई अन्य ध्वनि शामिल नहीं रहती। इसे यूँ समझ सकते हैं कि जैसे समष्टि में कई व्यक्ति सम्मिलित रहते हैं, किंतु व्यष्टि में कोई अन्य व्यक्ति सम्मिलित नहीं रहता।
- किसी भी भाषा के स्वनिम परस्पर भिन्न होते हैं, वहीं एक स्वनिम के संस्वन मिलते-जुलते से लगते हैं।
- वितरण की दृष्टि से सभी भाषा के स्वनिम व्यतिरेकी होते हैं, किंतु एक स्वनिम के संस्वन या तो परिपूरक वितरण में होते हैं या मुक्त वितरण में।
- सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि स्वनिमों की सत्ता मानसिक होती है, वहीं संस्वनों की भौतिक। वास्तव में हम स्वनिमों का नहीं संस्वनों का ही उच्चारण करते हैं।
स्वनिम निर्धारण एवं वितरण
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]स्वनिम अपने वितरण में व्यतिरेकी (contranstive) होते हैं। इसका आशय यह है कि जहाँ एक की उपस्थिति होगी वहाँ दूसरा नहीं आ सकता। जैसे - कमल में म और ल के वितरण को ल और म से बदल दें तो वह कलम हो जाएगा, इस प्रकार स्वनिम परिवर्तन से अर्थ परिवर्तन भी घटित होता है। हालांकि किसी स्वनिम के सहस्वन या उपस्वन (Allophone) का वितरण व्यतिरेकी न होकर परिपूरक (Complementary distribution) अथवा मुक्त (free distribution) होता है। 'पायल, पूजा, पूनम' इन तीनों के 'प' के उच्चारण में थोड़ा अंतर है 'पूजा' के साथ जो 'प' है वह 'पायल' के साथ नहीं होगा क्योंकि उनके उच्चारण में जो अंतर है वह उनके साथ आए अन्य स्वनिम के कारण है और अगर 'पूजा' वाला 'प' 'पूनम' में आ भी जाए तो अर्थ भेद नहीं होगा। वितरण की ऐसी अवस्था जब ध्वनि में अन्तर होने पर भी अर्थ-परिवर्तन नहीं होता, मुक्त वितरण (Free Distribution) कहलाता है। हिन्दी में उपस्वन या संस्वन के ऐसे प्रयोग मिल जाते हैं; उदाहरण - दीवार > दीवाल, ग़म > गम। यहाँ प्रथम शब्द में / र / - / ल और द्वितीय में / ग़ / - / ग / ध्वनियों के अतिरिक्त पूरा परिवेश समान है। इसके लिए ~ चिन्ह का प्रयोग करते हैं; यथा- दीवार > दीवाल / र / ~ / ल।[7]
संदर्भ
[सम्पादन | स्रोत सम्पादित करें]- ↑ शर्मा, देवेन्द्रनाथ. भाषाविज्ञान की भूमिका (2018 ed.). नई दिल्ली: राधाकृष्ण प्रकाशन. p. 215. ISBN 978-81-7119-743-9.
- ↑ शर्मा, देवीदत्त. भाषिकी और संस्कृत भाषा (1990 ed.). चंडीगढ़: हरियाणा साहित्य अकादमी. p. 197.
- ↑ ब्लूमफील्ड, लियोनार्ड (1968). "स्वनिम : फोनीम". भाषा (PDF) (in हिंदी). दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास. p. 87.
- ↑ Hubbell, Allan F. (February 1951). "Daniel Jones on the Phoneme". American Speech. Duke University Press. 26 (1): 44-46. doi:10.2307/453314.
- ↑ Bloch, Bernard; Trager, George Leonard (1942). Outline of linguistic analysis. Linguistic Society of America at the Waverly Press. p. 40.
- ↑ झा, सीताराम. भाषा विज्ञान तथा हिन्दी भाषा का वैज्ञानिक विश्लेषण (2015 ed.). पटना: बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी. p. 157-58. ISBN 978-93-83021-84-0.
- ↑ भोलानाथ तिवारी (1999). हिन्दी भाषा की संरचना (2004 ed.). दिल्ली: वाणी प्रकाशन. pp. 12–13.